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Last Updated: 2014/09/01
Summary of question
शिया मज़हब सबसे अच्छा क्यों है?
question
शिया मज़हब सबसे अच्छा क्यों है? मैं खुद शिया हूँ लेकिन मुझे नहीं पता है की शिया मज़हब, वहाबियत से अच्छा क्यों है... ख़ुदा न करे कि हम उन ७२ फ़िर्क़ों में से तो नहीं हैं जो गुमराह होगये हैं? मैं किस तरह मुतमईन हो सकता हूँ?
Concise answer
शिया मज़हब की बरतरी और श्रेष्ठता उसके हक़ और सच्चे होने की वजह से है. और सच्चा और सही दीन हर ज़माने में एक ही रहा है और दुसरे धर्म या तो सिरे से ही बातिल(झूठे) और बेबुनियाद हैं या अमान्य और मनसूख़ हो चुके हैं और मौजूदा समय में सच्ची और सही शरीअत और धर्म सिर्फ इस्लाम है. और इस्लाम की सही सूरत सिर्फ शिअत में दिखाई देती है और शिया मजहब की शिक्षाएं ही असली मुहम्मदी इस्लाम बता सकती हैं.
इतिहास और धार्मिक ग्रंथों से ये बात प्रमाणित और साबित है. और वहाबियत में यह बात और खासियत नहीं पायी जाती है.
Detailed Answer
दुसरे मज़हबों की तुलना में शिया मज़हब की बरतरी और श्रेष्ठता उसके हक़ और सच्चे होने की वजेह से है. और सच्चा और सही दीन हर ज़माने में एक ही रहा है और हर ज़माने में अल्लाह ने एक शरीअत भेजी है और उसके अलावा जितने दीन या धर्म हैं वो सिरे से झूठे हैं या अमान्य और मनसूख हो चुके हैं.
अब तक जितने दीन और मज़हब इंसानों के लिए आए हैं उनकी बहुलता लम्बाई(एक के बाद एक) में है न की एक दुसरे से अलग होकर, इस तरह कि बाद में आने वाली नई शरीअत और दीन पहले वाले दीन को मुकम्मल और पूर्ण करने के लिए आता और उसके  आने के बाद पहले वाला दीन अमान्य हो जाता है और उसकी जगह वही नया दीन ले लेता है. और सब पर उस नए दीन पर इमान लाना और उसकी की पैरवी करना अनिवार्य हो जाता है. इसीलिए धार्मिक ग्रंथों और किताबों में उन लोगों को काफ़िर कहा जाता है जो नए दीन पर ईमान नहीं लाते हैं.
इस्लाम, इंसानियत और मानवता के लिए भेजा गया आखिरी दीन है और अल्लाह इस्लाम के अलावा किसी और दीन को कुबूल नहीं करेगा. "ان الدین عندالله الاسلام"[1] “बेशक अल्लाह के नज़दीक (मान्य) दीन सिर्फ इस्लाम है.”
"و من یبتغ غیر الاسلام دینا فلن یقبل منه"[2]  ”अगर कोई इस्लाम के अलावा कोई दूसरा दीन चुनेगा तो उसको क़ुबूल नहीं किया जायेगा.”
अफ़सोस कि मुसलमान भी पिछली क़ौमों और दीनों के मानने वालों की तरह विभिन्न समुदायों में बट गए हैं तो ज़ाहिर उन में से सब एक ही समय में सच्चाई और हक़ पर नही होंगे.
हजरत मोहम्मद (स) ने फरमाया था:
"ان امّتی ستفرق بعدی علی ثلاث و سبعین فرقة، فرقة منها ناجیة، و اثنتان و سبعون فی النار
मेरे बाद मेरे मानने वाले ७३ समुदायों (फ़िर्क़ों) में बट जाएँगे, उन में से सिर्फ एक समुदाय को नजात मिलेगी और दुसरे ७२ समुदाय जहन्नम(नरक) में जायेंगे.[3]
सारे इस्लामी फ़िर्क़ों में सही और नजात पाने वाला फ़िर्का और समुदाय शिया ही है. और यह शिया मज़हब ही सही और सच्च्चा इस्लाम है.
पैग़म्बर (स) फ़रमाया हैं:
"ایها الناس انی ترکت فیکم ما ان اخذتم به لن تضلوا، کتاب الله و عترتی اهل بیتی"
 
ऐ लोगो; मैंने तुम्हारे बीच ऐसी चीज़ छोड़ी है कि अगर तुम उसे लोगे तो कभी गुमराह नहीं होगे, अल्लाह की किताब और मेरी इतरत यानि अहलेबैअत (अ).[4] 
रसूले ख़ुदा (स) के भरोसेमन्द और करीबी सहाबी अबुज़र ग़फ़फ़ारि(र) नक़ल करते हैं:
"سمعت النبی (ص) انه قال: الا ان مثل اهل بیتی فیکم مثل سفینة نوح فی قومه، من رکبها نجی و من تخلف عنها غرق"
“ मैंने नबी (स) को कहते हुए सुना है कि जान लो कि मेरे अहलेबैत की मिसाल तुम्हारे बीच ऐसी ही है जैसे नूह (अ) की कौम के बीच उनकी कश्ती थी, कि जो उस पर सवार हो गया वह नजात पा गया और जिसने उसका विरोध किया वो डूब गया.[5]
शिया मज़हब की बुनियाद तौहीद, अद्ल, नुबुव्वत, इमामत और क़यामत पर है. और शिओं का अक़ीदा है कि यह बारह मासूम इमाम (अ), पैग़म्बर (स) के  जानशीन और उत्तराधिकारी हैं जिन में सब से पहले अली (अ) और सब से अंतिम में मेहदी(अज) हैं.
रसूले ख़ुदा(स) की रवायतों में इमामों की संख्या बल्कि उनके नाम तक बताये गए हैं. एक दिन अब्दुल्लाह बिन मसूद(रसूल स के सहाबी) कुछ लोगों के बीच बैठे हुए थे की बियाबान की तरफ से एक अरब आया और उसने पुछा तुम में से अब्दुल्लाह बिन मसूद कौन है? अब्दुल्लाह ने जवाब दिया: मैं हूँ. अरब ने पुछा :
هل حدثکم نبیکم کم یکون بعده من الخلفاء؟ قال: نعم، اثناعشر، عدد نقباء بنی اسرائیل.
क्या तुम्हारे नबी (स) ने बताया है कि उनके बाद उन के कितने जानशीन और उत्तराधिकारी होंगे? अब्दुल्लाह ने कहा: हाँ, बारह, यानि बनी इस्राईल के नकीबों(प्रमुख, सरदार)की संख्या के बराबर.[6]
शिअत की सच्चाई और सत्यता पर हमारी दलील और प्रमाण कुरआन और सुन्नत(पैग़म्बर(स)  की बताई हुई बातें) है. अल्लाह ने क़ुरआन में अल्लाह, रसूल और उलिलअम्र की आज्ञाओं का पालन  और उनकी पैरवी का आदेश दिया है. और पैग़म्बर (स) के आदेशानुसार यही बारह इमाम ही उलिलअम्र हैं. क़ुरआन की बहुत सी आयतों में इमामत और विलायत की तरफ़ इशारा किया गया है जैसे :
"و انذر عشیرتک الاقربین"؛ "انما ولیکم الله و رسوله و المؤمنون الذین یقیمون الصلاة و یؤتون الذکوة و هم راکعون"، "یا ایها الرسول بلغ ما انزل الیک من ربک و ان لم تفعل فما بلغت رسالته"، "الیوم اکملت لکم دینکم و اتممت علیکم نعمتی و رضیت لکم الاسلام دیناً"ً، "انما یرید الله لیذهب عنکم الرجس اهل البیت"...
जैसी आयतें.
और इतिहास व रवायतों की गवाही के मुताबिक रसूल ख़ुदा नियमित तौर पर हज़रत अली (अ) को अपने उत्तराधिकारी के तौर पर बताते रहते थे. जैसा ख़ुद तबरी अपनी इतिहास की किताब में नक़ल करते हैं कि जब आयत: "و انذر عشیرتک الاقربین"   नाज़िल हुई तो पैग़म्बर (स) ने अपनी कौम से फ़रमाया: अल्लाह ने मुझे हुक्म दिया है की तुम सब को उसकी तरफ बुलाऊँ, तो तुम में से जो कोई भी इस काम में मेरा साथ देगा और सहायता करेगा तो  वो मेरा भाई, उत्तराधिकारी व जानशीन होगा. अली (अ) ने फ़रमाया: ऐ रसूलल्लाह (स) मैं इस राह में आप की सहायता करूँगा. पैग़म्बर (स) ने अली (अ) की गर्दन में अपने हाथ डाले और कहा: अब से यह तुम्हारे बीच मेरा भाई, उत्तराधिकारी और जानशीन होगा. इस की बात सुनना और उस की पैरवी करना. पैग़म्बर (स) के रिश्तेदार हँसते हुए उठ खड़े हुए और मज़ाक़ उड़ाते हुए जनाबे अबूतालिब (अ) से कहा: उसने तुमको हुक्म दिया है कि अपने बेटे की पैरवी करो और उसके आज्ञाकारी बन जाओ.[7]
पैग़म्बर (स) ने अपने उम्र के आख्रिरी साल में हज से वापसी पर कि जो हज्जतुल विदा(आख़िरी हज) के नाम से मशहूर है, ग़दीरे  ख़ुम नाम की जगह पर हज़रत अली बिन अबितलिब (अ) को आधिकारिक तौर पर मुसलमानो का इमाम और हाकिम बनाया और वहां मौजूद लोगो को हुक्म दिया की अमीरुल मोमिनीन के तौर पर अली (अ) की बैअत(निष्ठा) करें. उस दिन का उनका यह हुक्म मशहूर है  जिसमें उन्हों ने फर्मिया था: 
"من کنت مولاه فهذا علی مولاه"
 जिसका मैं मौला और हाकिम हूँ अली भी उसके मौला और हाकिम हैं. यह हदीस इस्लाम की मशहूर और मुतावातिर हदीसों में से है. यह शिअत की सत्यता,सच्चाई और दुसरे मजहबों पर बरतरी व श्रेष्ठा पर वो दलीलें थीं जो दीन में आयतों और रवायतों में बायान हुई हैं. अगरचे दीन के बाहर से शिअत और दूसरे समुदायों की शिक्षाओं की तुलना के ज़रिये भी इस को साबित किया जा सकता है. लेकिन यह बहस किसी और समय करेंगे.
अब वहाबियत के बारे में सय्यद मुस्तफ़ा रिज़वी की किताब “इत्त्लेआते सियासी व मज़हबीये पाकिस्तान” की ही बात करेंगे जिसमें लिखा है की वहाबी अपने अलावा इस्लाम के सारे समुदायों को काफ़िर, बुत परस्त और मुशरिक मानते हैं, वह लोग पैग़म्बर(स) और आइम्मा (अ) की क़ब्रों की ज़ियारत, उनके एहतेराम, और उनसे हाजत मांगने को बिदअत और बुत परस्ती कहते हैं और उसे हराम मानते हैं. वह नमाज़ के अलावा हर जगह रसूल(स) पर सलाम और उनके एहतेराम को हराम मानते हैं, आइम्मा (अ) और महान लोगों की क़ब्रों पर हर तरह की गुंबद या इमारत बनाने को बिदअत कहते हैं. और उनका मानना है कि रसूल (स) एक कमज़ोर इन्सान थे और अब मर चुके हैं, वह अब हमारे और इस दुनिया के बारे में वह कुछ नहीं जानते हैं इसलिए उनकी क़ब्र की ज़ियारत हराम है.[8]
अब फ़ैसला आपकी अक्ल के हवाले करते हैं कि इस तरह की बातें फ़ितरत और क़ुरआन के मुताबिक़ होसकती हैं. क्या यही है अहलेबैत (अ) से मोहब्बत जिसे अजरे रिसालत कहा गया है.[9] क्या क़ुरआन में नहीं आया है कि शहीद जिंदा हैं और अल्लाह के पास से रिज़क पारहे हैं.[10] क्या रसूल का रुतबा शहीदों से कम है?... अगर इस बारे ज़्यादा जानना चाहते हैं, तो हम को फिर लिखें.
 

[1] . आलेइम्रान/१९
[2] . आलेइम्रान/८५
[3]. अल इबानातुल्कुब्रा, इबने बत्ता, ज१,प३, खिसाल ,प५८५.
[4]. कन्जुल आमाल,ज१,प ४४, बाब अल एतेसाम बिकिताबे वास्सुन्नह.
[5].अल मुस्तदरक अलास्सहिहैन ,ज३,प१५१.
[6]. खिसाल, प ४६२.
[7]. तारीख़े तबरी,ज२,प३२०, प्रकाशित मिस्र; कामिल इबने असीर,ज२,प४१, प्रकाशित बेरूत.
[8]. सय्यद मुस्तफ़ा रिज़वी, इत्त्लेआते सियासी व मज़हबीये पाकिस्तान, प६३-६४
[9]. "قُلْ لا أَسْئَلُكُمْ عَلَيْهِ أَجْراً إِلاَّ الْمَوَدَّةَ فِي الْقُرْبى" शूरा/२३
[10]. आले इमरान/१६९ 
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